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Showing posts from June, 2020

दिल हारने का जुआ

चलो तुम इस बाजी में लगाओ अपनी दौलत  हम वही दिल लगाते हैं जो कई बार हारे हैं तुमपे, आज फिर से तुमसे उधार मांग के उसी की बाजी लगाते हैं, तुम जीत गयी तो ये दिल तुम्हारा, और मैं हारा तो भी तुम्हारा, जानती ही हो ये दिल हर बार तुमपे हार जाते है,  लेकिन तुम तो हार जीत के इस खेल में तुम दिल से भी खेल जाती हो... जीत के ये खेल तुम साथ में मेरा चैन भी ले जाती हो, जाने कब तक खेलती रहोगी ऐसे इस दिल से,  जाने कब तक हारता रहूंगा सब कुछ तुमसे , जाने कब तक खेलता रहूँगा ये तुमपे दिल हारने का  जुआ... © रक्तबीज

क्या है

लिखते हैं थोड़ा पर शायर नहीं हम बार बार बेमतलब का ये अर्ज़ क्या है हारे हैं खुद से या हराए हुए हम इन सारी बातों में अब फर्क क्या है जिम्मेदार सारी अपनी उन गलती के हैं हम अब ये भी पता है अपने फ़र्ज़ क्या हैं बीमार बन के बैठे अस्पतालों में हैं हम अब जा कर जाना कि ये मर्ज क्या है बर्बाद तो अब हैं खयालों में भी हम जुआ खेलने में तब हर्ज क्या है © सत्यम

ऐलान

मैंने अपने आप को हर दर्द दिया है रास्तों में कांटे और मौसम सर्द दिया है गाड़ी से उतर कर, पैदल चला हूं मैं छांव को छोड़ कर, सूरज से जला हूं मैं हर गलती की कड़वी दवा पी है मैंने उम्मीदों को थोड़ी हवा दी है मैने भटकाते हर मार्ग को मैंने है छोड़ा हर झूठे स्वप्न को मैंने है तोड़ा किसी को बुला लो, दो दो हाथ कर लो अब तैयार हूं मैं, ये ऐलान कर दो © सत्यम

ठीक है!

ठीक है!! बात उनकी भी ठीक है,अपना उनसे बिछड़ जाना ही ठीक है. गर तुमको प्यार हो जाता, मेरी दो बातों से तो मेरा रूठ जाना ठीक है? तुमको मोहब्बत न हो हमसे,ये मुमकिन तो नहीं .  गर मैं ग़ैर हो जाउँ तो मेरा चुपचाप चले जाना ठीक है.. दोस्ती को इश्क़ में तब्दील करना अच्छा नहीं है , तो तेरा सिर्फ़ दोस्त बने रहना ही ठीक है, जब भर जाए दिल तेरा हमसे खेलकर, मेरा तुझसे बिछड़ जाना ही ठीक है.. कौन बैठा है तेरे-मेरे मन के भीतर, गर मन मे ही खोट हो तो तेरा मेरे लिए दरवाजे बंद कर जाना ठीक है, मोहब्बत में किसी का बेवजह दिल दुखाना ठीक है? बड़े -बड़े वादे करके नरेंद्र मोदी बन जाना ठीक है? और आखिर में "तेरा मेरे प्यार को ठुकरा जाना ठीक है, उम्मीदें थी जितनी तुझसे सबको यूँही तोड़ जाना ठीक है! मत पूछ कितना दुःख होता है तेरी बेपरवाही से, इससे अच्छा तो था कि तेरा बिना बताए मुझसे दूर चले जाना ठीक है...

अभी ज़िंदा है भाई

वो जो कहते थे मुझको एक हारा विजेता मेरी हार पर वो जो ठहाके लगते थे देखा था उनको बड़ी शिद्दत से मैंने दिखाना था उनको अब, मैं चीज़ क्या हूँ जब मैने उन्हें जीत कर था दिखाया उन्होंने मुझे तब दिखाई थी खाई उन्होंने था सोचा कि ये अब खतम है है बाकी नहीं इस में अब वो लड़ाई उठा हूँ ज़मीं से उन्हें फिर दिखाने जा कर कहना उन्हें अभी ज़िंदा है भाई © सत्यम

Terminal Batch 2020

Terminal Batch 2020 I am one of the students of the Terminal Batch of 2020. I were on the last steps of my academics, and I knew quite well that in the coming future, after this stage, I will never get another chance of sitting back in the classes and disturbing my friends. I knew I would miss my classroom, my teachers, my classmates, my college....In fact, every moment of my academic life that I shared with my friends. So, I was enjoying my terminal semester as much as I could. I never wanted to miss even a boring lecture given by our professors, but I bunked classes for a movie, for street food and some times just to gossip with my favorites. I never missed an offer for a cup of tea from x,y,z. I never missed out on teasing my friend on his relationship within the same class. I never missed out on the departmental fights among students. I never even missed out on my friend's girlfriend's tiffin. I never missed on saying a Hi or Bye to my friend's crush. I never missed out...

कैसे किया होगा?

 कैसे उसने वो अपने अंतिम छण का दर्द बर्दाश्त किया होगा? जब फंदा कसने लगा होगा, सांस अटकने लगी होगी, मौत भी उसको प्रत्यक्ष दिखने लगी होगी, दर्द हर हद से आगे गुजरने लगा होगा, उसने इतना असहनीय दर्द कैसे सहा होगा! गर्दन की हर नस अकड़ने लगी होगी, मस्तिष्क तक रुधिर गति शिथिल पड़ने लगी होगी, सांसें एकदम मन्द चलने लगी होगी, एक बार तो उसका मन उस दर्द से बाहर निकलने का तो हुआ होगा? इतना असहनीय दर्द उसने कैसे सहा होगा! संसार और समय की गति से परे शरीर जाने लगा होगा, यमपाश उसकी आत्मा को कसने लगा होगा, समस्त जीवन की यादों का कोलाहल उसको यूँ ही डसने लगा होगा, उसने गर्दन को फंदे में क्यूँ रखा होगा... उसने इतना सब कैसे सहा होगा?  बस यही सवाल सब कर रहे हैं, न्यूज चैनल न जाने कितने दिनों से बेवज़ह बहस कर रहे हैं.. जाने कब तक ये लोग किसी की मौत को भी चर्चा का विषय बनाते रहेंगे, जाने कब ये निष्ठुर लोग अपनी ये नीच हरक़त बन्द करेंगें। अगर उसकी आत्मा देख रही होगी, वो भी अपने किये पे अफसोस कर रही होगी, लोग उसकी आत्महत्या को भी मुद्दा बना डाले हैं, इस लोकतंत्र के खेल भी निराले हैं। ये भी एक दर्द है जैसे तै...

Happy Father's Day, Papa!

I am nothing at all without You; Whatever I've learned from my childhood, There are, of course, You! When I watch you do the things, When I observe You at any matter, I always find a lesson that, In this world, h ow  I stand on my feet! Whatever anyone find good in me today, I owe to your struggle, your patience, your love, your strength & your wisdom. You're always a guide and a companion, When no one listen me, there You're, Who pay attention at all my words. For all my troubles always You've a plan. My all desires fulfilled because of You. I have never try to find an Ideal outside, Because You're always role model For me and I just want to be like You. You are my everything, my world!                                               -Shashank Follow us on Social Networks:  Instagram    Facebook

तो क्या हार मान लूं मैं?

नींद ना आये, रातों में जागता अधूरे सपने लिए, गलियों में भागता अपने आप से बस यही पूछता कि कहाँ जा रहा हूँ मैं? कोई है रोकता तो रुकते नही हो कोई है टोकता तो डरते नही हो अनजाने रास्ते पर चले जा रहे हो डर भी है पर निडरता दिखा रहे हो कहाँ तक जाओगे पता नही है पहुँच भी पाओगे पता नही है तभी एक आवाज़ मुझे रोकती है कानो में आ कर वो मुझे पूछती है कि कहाँ जा रहा है तू? मैने उसे अपने पास बैठाला और कंधों पर उसके मैने हाथ डाला बोला बहुत ही अदब से उससे तो क्या हार मान लूं मैं? © सत्यम

ख्वाहिश

मैं रेत सा और तुम समंदर सी, हमेशा ख्वाहिश है कि तुम मुझे केवल स्पर्श न करो,  बल्कि अपने अंदर समा लो, जैसे सीप अपने अंदर मोती को रखती है।  आसमान के सुना रहा जाने पर चकोर अकेला रह जाता है,  वैसे ही तुम्हारे सिर्फ स्पर्श से ये रेत भी सूनी रह जाती है। © सूर्य प्रकाश अग्रहरि

कदम मिला कर चलना होगा - स्मृतिशेष अटल बिहारी बाजपेई जी

बाधाएँ आती हैं आएँ,  घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,  पाँवों के नीचे अंगारे,  सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,  निज हाथों से हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। कदम मिलाकर चलना होगा।  हास्य-रुदन में, तूफानों में,  अमर असंख्यक बलिदानों में,  उद्यानों में, वीरानों में,  अपमानों में, सम्मानों में  उन्नत मस्तक, उभरा सीना,  पीड़ाओं में पलना होगा!  कदम मिलाकर चलना होगा।  उजियारे में, अंधकार में, कल कछार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में,  क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,  जीवन के शत-शत आकर्षक,  अरमानों को दलना होगा।  कदम मिलाकर चलना होगा। सम्मुख फैला अमर ध्येय-पथ,  प्रगति चिरंतन कैसा इति-अथ,   सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,  असफल, सफल समान मनोरथ,  सबकुछ देकर कुछ न माँगते,  पावस बनकर ढलना होगा।  कदम मिलाकर चलना होगा।  कुश-काँटों से सज्जित जीवन,  प्रखर प्यार से वंचित यौवन,  नीरवता से मुखरित मधुवन,  पर-हित अर्पित अपना तन-मन,  जीवन को शत-शत आहुति में,  जलना ह...

चाहता हूं

नहीं चाहता जब मैं खुश हो जाऊं, कोई आगोश में ले बाहों का झूला झुलाये। नहीं चाहता जब मैं दुखी होऊं तो कोई मेरे अश्रुपूरित नैनों से अश्रु सुखाए । नहीं चाहता जब मैं सो जाऊं तो कोई अपनी गोद में सर रखकर सहलाए। नहीं चाहता कोई अपनी काली जुल्फें मेरे चेहरे पे बिखराये। नहीं चाहता कोई मेरे संग कॉफी की डेट पर भी जाये। नहीं चाहता कि कोई मेरी प्रेयसी बन,मेरे ख्वाबों से अपनी वरमाला सजाए। और मैं नहीं चाहता कोई मुझे अपने प्यार के रंग में रंग जाए। बस चाहता हूं तो इतना कि मेरे मन का शोर दुश्मन के नींद-चैन उड़ाए। सिर्फ़ चाहता हूं कि मेरे लहू की हर बूंद तेजाब बन दुश्मन के हौसले पश्त कर जाए। चाहता हूँ कि एक रोज ये सीमा मुझे पुकार बुलाये.. चाहता हूँ कि इस धरा का हर वीर अपना अपना कर्ज़ चुकाए। और चाहता हूँ कि जो भी अतिक्रमण करे इस पावन धरा का उसका शीश भारत माता के चरणों मे फूल सा टूट गिर जाए।।        ©रक्तबीज

आज मिलें क्या

आज मिलें क्या अन ख्वाबों में जहां रोज़ तुम आती थी हंसाती थी मुझको, थोड़ा झूठा ही रुलाती थी क्यूंकि आज मुझे तुमको फिर से देखना है तुम्हारे साथ बिताए लम्हों को फिर से संजोना है तुम भी मुझे देख लेना, इतने बुरे तो नहीं हम तेरा हर फैसला मानने को तैयार भी हैं हम मैं चाह लूंगा तो दुनिया मुझे रोकेगी क्या लेकिन मैं तुमसे पूछता हूं, उन सपनों में फिर आज मिलें क्या © रक्तफूल

"फेंक जहां तक भाला जाए" - वाहिद अली वाहिद द्वारा रचित

कब तक बोझ संभाला जाए द्वंद्व कहां तक पाला जाए दूध छीन बच्चों के मुख से  क्यों नागों को पाला जाए दोनों ओर लिखा हो भारत  सिक्का वही उछाला जाए तू भी है राणा का वंशज  फेंक जहां तक भाला जाए  इस बिगड़ैल पड़ोसी को तो  फिर शीशे में ढाला जाए  तेरे मेरे दिल पर ताला  राम करें ये ताला जाए  वाहिद के घर दीप जले तो  मंदिर तलक उजाला जाए कब तक बोझ संभाला जाए युद्ध कहां तक टाला जाए  तू भी है राणा का वंशज  फेंक जहां तक भाला जाए - वाहिद अली वाहिद

जीवन का सत्य

शिशु का कोमल तन,मनभावन- मुस्कान मृतक में भी प्राण फूंक दे। बालक रूप में लुभाती अठखेलियां, शरारतें और तोतली बातें। अब शिक्षा ग्रहण करने का समय आता है। धीरे-धीरे वो बालक किशोरावस्था की चौखट पर कदम रखता है। उसके अन्दर नादानी, भावना कि मैं ही सही हूँ बड़ी प्रबल होती है। दूसरे शरीर के प्रति आसक्ति बढ़ती है, जिसे वो प्रेम मानकर जीवन की पहली.. सबसे बड़ी भूल करता है।  फिर युवावस्था में प्रवेश उसके जीवन का उच्चतम काल होता है। दो ही विकल्प रह जाते हैं,  या तो अभी मानसिक-शारीरिक श्रम द्वारा भविष्य को उज्जवल बना ले.. या फिर मोह-माया में उलझा रहे और कर्महीनता से भविष्य अंधकार में ढकेल दे।  इसी समय मनुष्य में परिपक्वता आती है,  प्रेम और मोह में अंतर स्पष्ट होता है।  इसी अवस्था में वह अपने रूप-सौंदर्य के अहंकार में मदमस्त हुआ फिरता है.. भूल जाता है कि शारीरिक सौंदर्य नहीं बल्कि आत्मा को श्रेष्ठ बनाना लक्ष्य होना चाहिये ।  फिर वो गृहस्थाश्रम में जीवन को आगे बढ़ाता है,  'अर्थ और 'काम' के पीछे भागता है।  वृद्धावस्था में वही शारीरिक सौंदर्य जिसका उसे अभिमान होता है,...

मजदूर या मजबूर

वह कभी खड़ी दुपहरी में  ईंट-पत्थर  तोड़ रहा होता है तो कभी कहीं भारी बारिश में रिक्शा धकेल रहा होता है तो कभी कड़ाके ठंड में बजबजाती नालियों में उतरता है। तो कभी सड़क किनारे कूड़ा-कचरा बीनते भी दिखता है। ऊंचे पहाड़ों पर छीन्नी, हथौड़ी, फावड़े  से चट्टान तोड़ता है कोयले की गहरी काली खानों में बेहिचक वो उतर जाता है गगनचुंबी इमारतों पर भी रस्सी-बांस के सहारे चढ़ जाता है। वो अक्सर गिरता है, दबता है, मरता है- पर, परवाह  किसे? वो क्यूं न जान की बाजी लगाए, उसे डर रोटी का सताता है। उसकी काया क्या बताऊं? काला पड़ गया शिथिल बदन, बिखरे बाल, फटी एड़ियां,  खुरदुरे हाथ,  चेहरे पर तनाव, मैले-कुचले कपड़े,  दुर्गंध में लिप्त,  बोझ  से  दबा हुआ; जी हां, बिल्कुल सही समझे: वो है हमारे देश का मजदूर। हर रोज सुबह शहर की गली-चौराहों पर वह खड़ा रहता है ताकि उसे एक खरीददार मिल सके उसके पूरे दिन के लिए। वह पूरे दिन धूप में तपते हुए बोता है: ईंट, पत्थर और गारा ताकि उसके परिवार को भी नसीब हो सके रात  का  चारा। शाम को थककर चूर,  चंद पैसे कमाने के बाद,...

विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस

हमारा देश समस्त विविधताओं के हर रंग से परिपूर्ण है।पुराणों के अनुसार माता पिता भगवान का स्वरूप माने गए हैं।भगवान श्री राम अपने पिता के सिर्फ़ 1 बार कहने पर 14 वर्ष के वनवास के लिए अपना राज्याभिषेक छोड़ दिए । पूरी ईमानदारी और निष्ठा से पिता की आज्ञा का पालन किया।बिना चौदह वर्ष पूर्ण किये लौटे नहीं । भगवान श्रीराम के अलावा भी कई उदाहरण मौजूद हैं। लेकिन अब हम सब धीरे धीरे अपनी इस संस्कृति, परंपरा से दूर होते जा रहे हैं। दुनिया की आपा-धापी भरी जिंदगी की चकाचौंध में इस कदर डूब गए हैं कि हमें अपने माता पिता  की फ़िक्र ही नहीं रह गयी है! माँ-बाप कितनी उम्मीदों से हमको पालते हैं। न जाने कितने कष्ट सहकर पढ़ाते लिखाते हैं लेकिन बड़े होकर हम क्या करते है? वृद्धाश्रम की चाहरदीवारी में ले जाकर कैद कर आते हैं।कई लोग तो अपने बूढ़े माँ बाप पे अत्याचार भी करते हैं और इस रिश्ते को शर्मशार कर देते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने बुजुर्गों के प्रति बढ़ते अपराधों को ध्यान में रखते हुए 15 जून को विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।भारत के गैर सरकारी संगठन हेल्प एज इंडिया के सर्वे के अनुस...

"कोई बात नहीं"

हां मंजूर हो, तो नाम बोलो, जात नहीं ये प्यार है, ऐसी वैसी फरियाद नहीं हां आस है, तोड़ना हो तो तोड़ दो नामंजूर हो, तो ठीक है कोई बात नहीं © रक्तफूल

परकटी

सपने सभी देखते हैं कुछ के पूरे होते तो कुछ के अधूरे रहते हैं। झूठ कहते हैं सब कि शिद्दत से गर चाहो तो  कायनात भी साथ देती है। किसी ने पूरी शिद्दत से  देख  रखे  थे  सपने पर इस जिंदगी का क्या करें, सपने भी थे, शिद्दत भी थी पर सांस ने जो साथ ना दिया। एक परी थी, हौसलों से भरी थी। सपनों में भी सपनों को ही  पूरा होते देखती थी। सपने सभी के पूरे नहीं होते लेकिन मतलब यह नहीं कि उन सपनों में जान नहीं होती। कहते हैं कि बिन पंख के उड़ो यहां तो आलम इस कदर है कि  बावजूद अपने दो पैरों के भी एक छोटी सी छलांग नहीं होती। पंखों को चलो काट दिया किसी ने फिर भी कोशिश करती उड़ने की, कुछ लोगों की सहानुभूति मिली  कोई साथ चला बातों से केवल  तो कुछ ने दिखाई गहन संवेदना। उसने समेटा अपने सभी स्वप्नों को और बढ़ गयी शोर से दूर एक सुनसान कोठरी की ओर। जहां उस पंखकटे की शांत चीख  बिल्कुल ना सुन पाए कोई  तनिक, न जान पाए वेदना। कुछ दिन गए, कुछ शाम बीती  कुछ पख  गए,  पखवारे  बीते भूली थी, कुछ-कुछ याद  था। अनभिज्ञ सी, पूरे जमाने से तेज बढ़ने लगी...

बेड़ियों में जकड़ा बचपन

बचपन शब्द सुनते ही हमारे मन में उभरता है बेपरवाह,मासूम सा चेहरा,मन मे स्वच्छंद रूप से आते हुए स्वथ्य विचार, या फिर कंधे पर बस्ता टांगे स्कूल जाता हुआ,या अपने किसी मित्र को बचाने के लिए शिक्षक से किसी और की शिकायत करता हुआ बचपन.. लेकिन कभी बचपन का नाम सुनते ही हमारे मन में ऐसी कोई तस्वीर नहीं उभरती जिसमें बचपन चंद  पैसों के लिए किसी स्टेशन पर जूते रगड़ता हुआ, ट्रैफिक सिग्नल पर किसी के सामने हाथ पसारे, किसी जमीदार के यहां अपनी आखिरी सांस तक काम करने की कसम खाया हुआ,किसी सड़क या नाले के किनारे नशे में धुत हुआ हो.. लेकिन वर्तमान समय मे बचपन की दूसरी तस्वीर ही वास्तविक तस्वीर सी प्रतीत होने लगी है। जरा सोचिए जिन हाथों में कलम और किताबें  होनी चाहिए  उन्हीं हाथों  में बालश्रम की बेड़ियां होंगी तो कैसे एक शिक्षित,जिम्मेदार तथा नैतिक कर्तव्यों से युक्त नागरिक का निर्माण हो पाएगा? जिन कन्धों पे इस देश का आने वाला कल है,उन कंधों पे अभी से ही घर की तमाम सारी जिम्मेदारियां ऐसे ही दे देना उसे कमज़ोर नही करेगा या बिखरने से रोक पायेगा?  ऐसे ना जाने कई तस्वीरें हैं जो इस समाज को...

तुमको उस सूनी सड़क का सफर याद है?

तुम्हारा दिल बहलाने को उस रात में मैंने की थी तुमसे वो सारी बातें याद है बातें की थीं किसी ने हमारे बारे में तुम परेशान थी बहुत मुझे याद है सब अपने अपने घर जा चुके थे उस दिन मैंने सिर्फ तुमको रोका था और तुम डर रही थी घर अकेले जाने को मैने तुमको गली के नुक्कड़ तक छोड़ा था बहुत देर हो चुकी थी तुम्हे घर जाने में और तुम्हारी गली में बहुत अंधेरा भी था मैं तो नही भूला हूँ पर तुम बताओ तुमको उस सूनी सड़क का सफर याद है? © रक्तफूल

समय के साथ दम तोड़ती दोस्ती!

जिंदगी में कुछ पाने की ख्वाहिश में अक्सर हम कुछ ना कुछ खो देते हैं..  कोई रातों की नींद खोता है.. तो कोई सुबह की चैन खो देता है। दोस्त- यार तो शायद मिलते ही हैं बिछड़ने के लिए.. एक शहर से दूसरे शहर चले जाओ.. नए लोग मिलते हैं, व्यस्तता बढ़ती है... तो उस पुराने शहर के दोस्त काफी पीछे छूट जाते हैं। उम्र के साथ समझ और जिंदगी संवारने का दबाव दोनों बढ़ता जाता है.. ऐसे में चंद जरूरत के लोग याद आते हैं बाकी सब किस्से बनकर रह जाते हैं.. हमें उन दोस्तों के साथ बिताए लम्हों को भी याद करने का समय नहीं होता.. शायद जिंदगी इतनी व्यस्त चल रही होती है या फिर हम समझ चुके होते हैं, अब उनका हमारी जिंदगी में कोई अहमियत नहीं। उनकी जरूरत भला क्यूं हो.. हमारे नए दोस्त तो हैं.. जिनके साथ हम आज भी वही मस्ती करते हैं, जैसा उन पुराने शहर वाले दोस्तों के साथ करते थे। खुद का अपने किसी करीबी से इग्नोर होना सब को बुरा लगता है.. लेकिन क्या करें, जिंदगी है साहब! कभी-कभी तो हम इग्नोर भी कर जाते हैं अपने उन पुराने दोस्तों को, आभासी या वास्तविक रूप से सामने दिखने पर.. शायद.. जिंदगी में हमारी कुछ उथल-पुथल चल...

साकी विग्रह - भाग २

साकी चली जाती है,  उसकी सिर्फ़ आवाजें सुनता हूँ, लिखने की कोशिश करता हूँ, लेकिन उसके जाने मात्र से मेरे शब्द रूठ जाते हैं, मात्रा मुँह फेर लेती है, कागजों पे सिलवटें उभर आती हैं, क़लम भारी होके चलने से इंकार कर देती है.. निःशब्द सा हो जाता हूँ मै, मन कचोटने लगता है।  इस निशांत जीवन की दौड़ में अकेला सा रह जाता हूँ. रात काटने दौड़ती है, अंधकार तैयार हो जाता है निगलने को, लेकिन उसकी कुछ यादें, वो उसके साथ बिताए कुछ लम्हे याद आते हैं. उनमें हुई बातों के आधे- अधूरे वाक्य, खनकती हंसी, उसका कभी गुस्सा करना या किसी बात पे चिढ़ जाना सब याद आते हैं एक साथ। फ़िर वो अचानक इस मंथन में फिर से शामिल होने आ जाती है, लेके हाथों में हाला सारा ध्यान तोड़ जाती है. शायद उसका आना ही मुझे उन सबसे बाहर निकाल देता है।                                                             - शैलेश Follow us on Social Networks:  Instagram    Faceb...

"गीत गाने दो मुझे" - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" जी की उत्कृष्ट कविता

गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को। चोट खाकर राह चलते होश के भी होश छूटे, हाथ जो पाथेय थे, ठग- ठाकुरों ने रात लूटे, कंठ रूकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो। भर गया है ज़हर से संसार जैसे हार खाकर, देखते हैं लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर, बुझ गई है लौ पृथा की, जल उठो फिर सींचने को। - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" जी

विजय पताका तुम फहराओ!

धड़कन से बात करो तुम अपनी स्वप्न सुनहरे उसे दिखाओ आवाज़ लगाओ आस को अपनी नई चेतना पुनः जगाओ सांसों को अपनी धैर्य दिखाओ पल दो पल का विश्राम करो नई योजना पुनः बनाओ तब उस पर अनुसंधान करो संघर्षों को तुम बाण बनाओ दुर्बलता पर संधान करो पूर्व विजय का साक्ष्य दिखाओ तब उस पर अभिमान करो छोड़ो कल के खेल खिलौने नए अस्त्र तुम स्वयं बनाओ जो तुम तक आई भाला बन उस विपदा को तीर बनाओ भूल गए जो आग तुम्हारी अपने रिपु को तुम याद दिलाओ किसमें शक्ति तुम्हें ललकारे  जाओ उससे आंख लड़ाओ जो भी बाधा मिले मार्ग में उसको सहर्ष तुम गले लगाओ जो बोले थे हार गया ये उनको बल का परिचय करवाओ जो गढ़ छल कर छीना था तुमसे उस पर अब तुम सेंध लगाओ सत्ता उलट पलट तुम कर दो विजय पताका तुम फहराओ लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मर्यादा तुम भूल ही जाओ याद रखो तुम कल भी अपना नीति धर्म से राज चलाओ - सत्यम     

"मैं नीर भरी दुःख की बदली!" - महादेवी वर्मा जी की उत्कृष्ट रचना

मैं नीर भरी दु:ख की बदली! स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रन्दन में आहत विश्व हंसा, नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा, श्वासों में स्वप्न पराग झरा, नभ के नव रंग बुनते दुकूल, छाया में मलय बयार पली, मैं क्षितिज भॄकुटि पर घिर धूमिल, चिंता का भार बनी अविरल, रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नव जीवन अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना, पद चिन्ह न दे जाता जाना, सुधि मेरे आगम की जग में, सुख की सिहरन बन अंत खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी कल थी मिट आज चली! - महादेवी वर्मा जी

अनजान शहर और गुमनाम मैं!

यहां सब कुछ मुझे  बेह़द अनजान सा  लगता है; बस रईसों के सपनों में यहां उड़ान  सा  लगता है, और हर तीसरा शख़्श इनमें बेईमान सा लगता है। फिर, किस बात का इन्हें अभिमान सा लगता है ? गरीब मजदूर यहां अक्सर परेशान सा  लगता  है, फिर भी चोरी-मक्कारी उसे अपमान सा लगता है। बेश़क, उसके अंदर कुछ स्वाभिमान  सा लगता है। कुछ पूछने पर सामने वाला बेजुबान सा  लगता है, हर शख़्स  यहां  मेरी बातों  से  हैरान  सा लगता है, इस चकाचौंध में मेरा भी नाम गुमनाम सा लगता है। दूर से देखने में यह एक खुले आसमान सा लगता है, यहां रहकर देखो तो किसी बंद मकान सा लगता है। पता नहीं क्यूं, यह शहर मुझे कब्रिस्तान सा लगता है!                                                                     - शशांक Follow us on Social Networks:  Instagram    Facebook

साकी विग्रह - भाग 1

जब अकेला होता हूँ तो खो जाता हूँ बीते कल में खोए उस सख़्श की तलाश में.... इस दुनिया से परे ,इक कल्पनाओ की दुनिया में.. जहाँ सिर्फ मैं और कुछ विचार मंथन करते हैं गहरे बीते हुए कल के समुद्र का.. फिर उसकी सुनहरी यादों की मदिरा निकलती है औऱ मैं मदिरापान कर लेता हूं उस साकी के हाथों से, जो स्वयं आती है उसी मंथन से बाहर.. नशे में धुत्त न जाने कितनी दूर उसका सहारा लेके चलता हूँ..कदम लड़खड़ाते हैं, न जाने कितनी बार बहकता हूँ..  साथ चलते चलते एक खूबसूरत मोड़ पे वो ग़ायब हो जाती है.. जहाँ से सिर्फ़ उसकी आवाज़ आती है मुझे पुकारने की.. फिर भटकते भटकते आँख खुलती है घर की कुर्सी पे - शैलेष

विश्व पर्यावरण दिवस 2020

पर्यावरण, यह सुन कर ही हमारे मन में एक छवि बनती है, जिसमे हम देखते हैं फल-फूलों से लदे हुए पेड़-पौधों को, अनवरत कल-कल की आवाज करती हुई नदियों को, शांत और स्थिर मनमोहक जलाशयों को, बर्फ की चादर से ढके हुए बादलों को , तो अनेक दुर्लभ वनस्पतियों से पटे पड़े पहाड़ों को, हरियाली से आच्छादित मैदानों को, जंगलों को और इनमे विचरण कर रहे अनेकानेक जीव-जंतुओं को। रेगिस्तान हो या बर्फ से ही बने हमारी धरती के ध्रुव, यह सब हम मानवों के लिए पर्यावरण ही तो है जिनकी छाया या यूँ कहें कि संरक्षण में हम लोगों का जीवन सुखमय और समृद्ध है।  सच तो यह है कि सहसा ही सोचने पर एक बार में हम लोग हमारे पर्यावरण की कल्पना भी नहीं कर सकते।  यूं समझिए अनंत सागर और अपरिमित आकाश को अपने अंदर समाहित करने वाला ये पर्यावरण ही तो है।  तो भला इसका विस्तृत अध्ययन कहां संभव है? हम जिस घर में रहते हैं, जिस कमरे में सोते हैं,  जिन सड़कों पर सफर करते हैं, मॉर्निंग वॉक करते हैं, जहाँ खेलते हैं, जिस ऑफिस में काम करते हैं, जिस रेस्टॉरेंट में खाना खाते हैं, उन सब का अलग-अलग पर्यावरण है, और इन सब में बदलाव ...