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मजदूर या मजबूर

वह कभी खड़ी दुपहरी में  ईंट-पत्थर  तोड़ रहा होता है
तो कभी कहीं भारी बारिश में रिक्शा धकेल रहा होता है
तो कभी कड़ाके ठंड में बजबजाती नालियों में उतरता है।
तो कभी सड़क किनारे कूड़ा-कचरा बीनते भी दिखता है।
ऊंचे पहाड़ों पर छीन्नी, हथौड़ी, फावड़े  से चट्टान तोड़ता है
कोयले की गहरी काली खानों में बेहिचक वो उतर जाता है
गगनचुंबी इमारतों पर भी रस्सी-बांस के सहारे चढ़ जाता है।
वो अक्सर गिरता है, दबता है, मरता है- पर, परवाह  किसे?
वो क्यूं न जान की बाजी लगाए, उसे डर रोटी का सताता है।

उसकी काया क्या बताऊं? काला पड़ गया शिथिल बदन,
बिखरे बाल, फटी एड़ियां,  खुरदुरे हाथ,  चेहरे पर तनाव,
मैले-कुचले कपड़े,  दुर्गंध में लिप्त,  बोझ  से  दबा हुआ;
जी हां, बिल्कुल सही समझे: वो है हमारे देश का मजदूर।

हर रोज सुबह शहर की गली-चौराहों पर वह खड़ा रहता है
ताकि उसे एक खरीददार मिल सके उसके पूरे दिन के लिए।
वह पूरे दिन धूप में तपते हुए बोता है: ईंट, पत्थर और गारा
ताकि उसके परिवार को भी नसीब हो सके रात  का  चारा।
शाम को थककर चूर,  चंद पैसे कमाने के बाद,  वह लौटता है
अपने घर,  जहां लोग इंतजार में बैठे होते हैं चूल्हा जलाने को।
शाम की उस  दो रोटी  को शायद  वो सुकून से नहीं  खाता है;
क्योंकि रोटी का इंतजाम उसके पूरे दिन की कुर्बानी से आता है।

© शशांक शुक्ला

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