पर्यावरण, यह सुन कर ही हमारे मन में एक छवि बनती है, जिसमे हम देखते हैं फल-फूलों से लदे हुए पेड़-पौधों को, अनवरत कल-कल की आवाज करती हुई नदियों को, शांत और स्थिर मनमोहक जलाशयों को, बर्फ की चादर से ढके हुए बादलों को , तो अनेक दुर्लभ वनस्पतियों से पटे पड़े पहाड़ों को, हरियाली से आच्छादित मैदानों को, जंगलों को और इनमे विचरण कर रहे अनेकानेक जीव-जंतुओं को। रेगिस्तान हो या बर्फ से ही बने हमारी धरती के ध्रुव, यह सब हम मानवों के लिए पर्यावरण ही तो है जिनकी छाया या यूँ कहें कि संरक्षण में हम लोगों का जीवन सुखमय और समृद्ध है।
सच तो यह है कि सहसा ही सोचने पर एक बार में हम लोग हमारे पर्यावरण की कल्पना भी नहीं कर सकते। यूं समझिए अनंत सागर और अपरिमित आकाश को अपने अंदर समाहित करने वाला ये पर्यावरण ही तो है। तो भला इसका विस्तृत अध्ययन कहां संभव है?
हम जिस घर में रहते हैं, जिस कमरे में सोते हैं, जिन सड़कों पर सफर करते हैं, मॉर्निंग वॉक करते हैं, जहाँ खेलते हैं, जिस ऑफिस में काम करते हैं, जिस रेस्टॉरेंट में खाना खाते हैं, उन सब का अलग-अलग पर्यावरण है, और इन सब में बदलाव भी हम अपनी आवश्यकता के अनुरूप कर सकते हैं।
लेकिन हमारे शहरीय इलाकों में जो पर्यावरण है, वह प्रदूषण से कराहता हुआ, घायल अवस्था में है। उसे आमूलचूल स्वास्थ्य लाभ की जरूरत है। हमारे ग्रामीण इलाकों के पर्यावरण को भी बीमारी के लक्षण दिखने शुरू हो गए हैं, जिनकी समय रहते जांच और उपचार न किया गया तो उनकी दशा भी शहरों की तरह दयनीय हो जायेगी। प्राकृतिक सम्पदा के धनी, हमारे वन क्षेत्र जो कि अभी तक संरक्षित थे, अब बेरोकटोक पर्यटन, व्यवसायीकरण, प्रदूषण और अनियंत्रित जनसँख्या की जरूरतों की भेंट चढ़ते जा रहे हैं।
हाल की ही एक रिपोर्ट में पाया गया कि हर 6 सेकण्ड में एक फुटबॉल मैदान के बराबर क्षेत्रफल के वन क्षेत्र को मानवीय जरूरतों को पूरा करने और उनको बसाने के लिए उजाड़ दिया जाता है।
इसलिए, हम किस पर्यावरण में रहना चाहते हैं, और आने वाली पीढ़ी को कैसा पर्यावरण देना चाहते हैं, यह हमारी पसंद पर निर्भर करता है। अगर हम पेड़ों की जगह कंक्रीट के जंगल में रहना चाहते हैं तो यह हमारी इच्छा है। अगर हम अपने घरों के दरवाजों और खिड़कियों को खोल कर मनोहर शीतल हवाओं की जगह प्रदूषण का द्वंद्व झेलना चाहते हैं तो यह हमारी इच्छा है।
हमारे पर्यावरण को संरक्षित करने की बात हो रही है, या यूँ कहें कि जितना भी है उसे बचाने की जद्दोजहद हो रही है। क्यूंकि संरक्षित करने की समयावधि तो बीतती हुई दिख रही है। अनेक तरह की अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय या क्षेत्रीय बैठकें, सेमिनार, सन्धियाँ की जा रही हैं। दुनिया के हर बड़े से ले कर छोटे देश इन अभियानों में भाग लेते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा भी पर्यावरण संरक्षण के लिए अभियान चलाया जाता है। हास्यास्पद और चिंताजनक बात तो यह है कि इन अभियानों में भी देश अपने व्यक्तिगत हितों को देखते हुए इन अभियानों को केवल दिखावटी और कृत्रिम प्रयास बना कर रख दिया है।
लेकिन इन सब बातों के बीच दो तर्क स्पष्ट हैं कि,
"पर्यावरण को हमारी नहीं, हमें पर्यावरण की आवश्यकता है।" और "पर्यावरण को केवल संरक्षण ही नहीं अपितु नियत सुधार की भी आवश्यकता है।"
पृथ्वी के पर्यावरण में अनेक तरह की प्राकृतिक सम्पदाएँ हैं, अन्य दुर्लभ जीव जंतु भी हैं जिनको संरक्षित करने की जिम्मेदारी भी हम मानवों के पास होना हम मानवों के साथ अन्याय नहीं है, क्यूंकि हमने ही इनको सबसे ज्यादा हानि भी पहुंचाई है। एक फिल्म "The Jungle Book" का एक संवाद है जिसमे हाथियों के लिए कहा गया है,
"हाथियों ने ही इस जंगल को बनाया, जहाँ-जहाँ उन्होंने दांत गाड़े और नहर खोदी, वहीं से नदियां बहीं, जहाँ ये सूंड़ उठाकर चिंघाड़े वहां पत्ते गिरे, और उनसे पेड़ बने, पेड़ों पर पंछी आये...।"
आज 5 जून को जब 'विश्व पर्यावरण दिवस' मनाया जा रहा है। इससे चंद दिनों पहले भारत के केरल राज्य में एक गर्भवती, भूखी हथिनी को सुगम आहार के प्रलोभन के रूप में विस्फोटक पदार्थ से भरा हुआ फल खिला कर कुछ अमानवीय प्राणियों ने मौत के घाट उतार दिया। इस कृत्य को किसी भी तरह से मानवीय गुणों का परिचायक नहीं कहा जा सकता।
उस फल को खाने के बाद हुए विस्फोट से, मां बनने का सपना संजोए उस हथिनी को अत्यधिक पीड़ा और कष्ट हुआ होगा जिसकी कल्पना करना बेईमानी है, लेकिन फिर भी उस गर्भवती ने किसी अन्य प्राणी को हानि पहुंचाए बिना शांति से एक जलधारा में स्थान ग्रहण किया और तीन दिन की अकल्पनीय पीड़ा के बाद अपने प्राण त्याग कर अपने आप को मानवों से उत्कृष्ट जीव साबित कर गयी। मानवता इस कृत्य के लिए क्षमा योग्य नहीं है।
©सत्यम
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