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चाहता हूं


नहीं चाहता जब मैं खुश हो जाऊं, कोई आगोश में ले बाहों का झूला झुलाये।
नहीं चाहता जब मैं दुखी होऊं तो कोई मेरे अश्रुपूरित नैनों से अश्रु सुखाए ।
नहीं चाहता जब मैं सो जाऊं तो कोई अपनी गोद में सर रखकर सहलाए।
नहीं चाहता कोई अपनी काली जुल्फें मेरे चेहरे पे बिखराये।
नहीं चाहता कोई मेरे संग कॉफी की डेट पर भी जाये।
नहीं चाहता कि कोई मेरी प्रेयसी बन,मेरे ख्वाबों से अपनी वरमाला सजाए।
और मैं नहीं चाहता कोई मुझे अपने प्यार के रंग में रंग जाए।
बस चाहता हूं तो इतना कि मेरे मन का शोर दुश्मन के नींद-चैन उड़ाए।
सिर्फ़ चाहता हूं कि मेरे लहू की हर बूंद तेजाब बन दुश्मन के हौसले पश्त कर जाए।
चाहता हूँ कि एक रोज ये सीमा मुझे पुकार बुलाये..
चाहता हूँ कि इस धरा का हर वीर अपना अपना कर्ज़ चुकाए।
और चाहता हूँ कि जो भी अतिक्रमण करे इस पावन धरा का उसका शीश भारत माता के चरणों मे फूल सा टूट गिर जाए।।
    
  ©रक्तबीज

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"फेंक जहां तक भाला जाए" - वाहिद अली वाहिद द्वारा रचित

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क्या है

लिखते हैं थोड़ा पर शायर नहीं हम बार बार बेमतलब का ये अर्ज़ क्या है हारे हैं खुद से या हराए हुए हम इन सारी बातों में अब फर्क क्या है जिम्मेदार सारी अपनी उन गलती के हैं हम अब ये भी पता है अपने फ़र्ज़ क्या हैं बीमार बन के बैठे अस्पतालों में हैं हम अब जा कर जाना कि ये मर्ज क्या है बर्बाद तो अब हैं खयालों में भी हम जुआ खेलने में तब हर्ज क्या है © सत्यम

सहेली

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