यहां सब कुछ मुझे बेह़द अनजान सा लगता है;
बस रईसों के सपनों में यहां उड़ान सा लगता है,
और हर तीसरा शख़्श इनमें बेईमान सा लगता है।
फिर, किस बात का इन्हें अभिमान सा लगता है ?
गरीब मजदूर यहां अक्सर परेशान सा लगता है,
फिर भी चोरी-मक्कारी उसे अपमान सा लगता है।
बेश़क, उसके अंदर कुछ स्वाभिमान सा लगता है।
कुछ पूछने पर सामने वाला बेजुबान सा लगता है,
हर शख़्स यहां मेरी बातों से हैरान सा लगता है,
इस चकाचौंध में मेरा भी नाम गुमनाम सा लगता है।
दूर से देखने में यह एक खुले आसमान सा लगता है,
यहां रहकर देखो तो किसी बंद मकान सा लगता है।
पता नहीं क्यूं, यह शहर मुझे कब्रिस्तान सा लगता है!
- शशांक
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