सपने सभी देखते हैं
कुछ के पूरे होते तो
कुछ के अधूरे रहते हैं।
झूठ कहते हैं सब कि
शिद्दत से गर चाहो तो
कायनात भी साथ देती है।
किसी ने पूरी शिद्दत से
देख रखे थे सपने
पर इस जिंदगी का क्या करें,
सपने भी थे, शिद्दत भी थी
पर सांस ने जो साथ ना दिया।
एक परी थी,
हौसलों से भरी थी।
सपनों में भी सपनों को ही
पूरा होते देखती थी।
सपने सभी के पूरे नहीं होते
लेकिन मतलब यह नहीं कि
उन सपनों में जान नहीं होती।
कहते हैं कि बिन पंख के उड़ो
यहां तो आलम इस कदर है कि
बावजूद अपने दो पैरों के भी
एक छोटी सी छलांग नहीं होती।
पंखों को चलो काट दिया किसी ने
फिर भी कोशिश करती उड़ने की,
कुछ लोगों की सहानुभूति मिली
कोई साथ चला बातों से केवल
तो कुछ ने दिखाई गहन संवेदना।
उसने समेटा अपने सभी स्वप्नों को
और बढ़ गयी शोर से दूर
एक सुनसान कोठरी की ओर।
जहां उस पंखकटे की शांत चीख
बिल्कुल ना सुन पाए कोई
तनिक, न जान पाए वेदना।
कुछ दिन गए, कुछ शाम बीती
कुछ पख गए, पखवारे बीते
भूली थी, कुछ-कुछ याद था।
अनभिज्ञ सी, पूरे जमाने से
तेज बढ़ने लगी आंगन में वो;
आवेश में वह बढ़ चली
कुछ दूर उस मंजिल की ओर।
सके न देख जिसे ढोंगी मनुष्य
लेकर चले बुनी इक जाल को।
एक कोठरी हाजिर हुई हो
'परकटी' खुद कैद जिसमें।
न माने हार, वो बढ़ती थी निरंतर
लगता था, अब ना रुकेगी
पाकर रहेगी वह व्योम को!
पर क्या हुआ ? क्यों रुक गयी ?
कुछ दूर लेकिन देखें उसने
आते कई वृद्ध बाज भूखे,
जब मुश्किल लगा खुद को
बचाना उस कालरूपी बाज से,
फिर हारकर वह लौट आयी
जहां ले सके बस सांस खुद से।
साथ था रुंधा गला और टूटा स्वप्न
हारा हुआ हौसला, बाजी जान की,
कहानी रही यह उस 'परकटी' के
नीरस जीवन के असफल उड़ान की।
- शशांक
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