हमारा देश समस्त विविधताओं के हर रंग से परिपूर्ण है।पुराणों के अनुसार माता पिता भगवान का स्वरूप माने गए हैं।भगवान श्री राम अपने पिता के सिर्फ़ 1 बार कहने पर 14 वर्ष के वनवास के लिए अपना राज्याभिषेक छोड़ दिए । पूरी ईमानदारी और निष्ठा से पिता की आज्ञा का पालन किया।बिना चौदह वर्ष पूर्ण किये लौटे नहीं । भगवान श्रीराम के अलावा भी कई उदाहरण मौजूद हैं।
लेकिन अब हम सब धीरे धीरे अपनी इस संस्कृति, परंपरा से दूर होते जा रहे हैं। दुनिया की आपा-धापी भरी जिंदगी की चकाचौंध में इस कदर डूब गए हैं कि हमें अपने माता पिता की फ़िक्र ही नहीं रह गयी है! माँ-बाप कितनी उम्मीदों से हमको पालते हैं। न जाने कितने कष्ट सहकर पढ़ाते लिखाते हैं लेकिन बड़े होकर हम क्या करते है? वृद्धाश्रम की चाहरदीवारी में ले जाकर कैद कर आते हैं।कई लोग तो अपने बूढ़े माँ बाप पे अत्याचार भी करते हैं और इस रिश्ते को शर्मशार कर देते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने बुजुर्गों के प्रति बढ़ते अपराधों को ध्यान में रखते हुए 15 जून को विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।भारत के गैर सरकारी संगठन हेल्प एज इंडिया के सर्वे के अनुसार 23 फीसदी बुजुर्ग अत्याचार के शिकार हैं. ज्यादातर मामलों में बुजुर्गों को उनकी बहू सताती है. 39 फीसदी मामलों में बुजुर्गो ने अपनी बदहाली के लिए बहुओं को जिम्मेदार माना है. हेल्प एज इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैथ्यू चेरियन ने डॉयचे वेले को बताया, "सताने के मामले में बेटे भी ज्यादा पीछे नहीं. 38 फीसदी मामलों में उन्हें दोषी पाया गया है." चौंकाने वाली बात यह है कि मां बाप को तंग करने के मामले में खुद की बेटियां भी पीछे नहीं है. छोटे महानगरों में 17 फीसदी बेटियां अपने मां बाप पर जुल्म ढा रही हैं.अत्याचार का शिकार होने वाले बुजुर्गों में कुछ ऐसे भी बुजुर्ग हैं जो प्रतिदिन प्रताड़ित किये जाते हैं। उनके लिए गालियां सुनना,ताने और उलाहने सुनना आम बात है। कुछेक वृद्ध ऐसे भी हैं जिनके साथ हर रोज मार पीट भी होती है।
उम्र के जिस पड़ाव पे बुर्जुग माँ बाप को हमारी सबसे ज्यादा जरूरत होती है उस पड़ाव पे वो लोग कहीं अकेलेपन की जिंदगी गुजर रहे होते हैं। जैसे जैसे दुनिया ने तरक़्क़ी की है, वैसे-वैसे हम पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता की तरफ़ आकर्षित होने के साथ साथ हम उसको अपने जीवन में ही उतारते चले जा रहे हैं।अब हम मदर्स डे और फ़ादर्स डे भी मनाने लगे हैं।साल भर में उस 1 दिन बूढ़े माँ बाप को धूल पड़ी मेज की तरह बाहर निकालते हैं साफ़ कपड़े पहनाकर उनके साथ सेल्फियाँ खिंचवा कर निकल पड़ते हैं रोजमर्रा की जिंदगी पर। फ़िर लौट आती है उनकी जिंदगी में वहीं रोज की मारपीट ,तानों का दौर।
जाने कहाँ खो गयीं बचपन की वो हसरतें,
दादी माँ तेरे लिए चिमटा लाने वाला हामिद,
तेरे लिए कल वृद्धाश्रम आया था।
तेजी से बदलती इस दुनिया के लोगों के लिए रीति रिवाज,सामाजिक मूल्य या संस्कृति जैसे शब्द निर्जीव मात्र हैं और उनके मार्ग के रोड़े भी।यदि मां-बाप बच्चों को बोझ लगने लगे है, तो इसके लिए बहुत हद तक मां-बाप खुद भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि अभिभावकों की जैसी परवरिश करते हैं बच्चा वैसे ही अपनी परंपराओं से जुड़ता या दूर होता है।इस भागती दौड़ती जिंदगी में लोगों को अपने बुजुर्ग माँ बाप के साथ वक़्त गुजारने के मौके बहुत कम ही मिलते हैं या शायद हम उनके साथ समय गुजारना ही नही चाहते। कुल मिलाकर हम अपने दायित्वों,सामाजिक मूल्यों और संस्कृति से बहुत दूर आ चुके हैं ।हमें अपने उन आदर्शों को पुनः जीवंत करना होगा।हमें अपने बुजुर्ग माता पिता के सम्मान करना होगा, इसके लिए हमें कोई आके सिखाये अब हम इतने भी गए गुजरे तो नहीं है न!!
जब कभी दूर जाने लगो अपने माता पिता से,
बस इतना याद करना कितने सपने जलाए होंगे, तुम्हें इतना बड़ा करने में..
वैसे 1 बात कहनी थी जल्दी ही हम सब भी तो वृद्ध होंगे अभी नहीं तो 40-50 साल बाद तब तो और भी दुनिया बदल चुकी होगी। क्या पता उस समय हमें वृद्धाश्रम भी नसीब न हो!!
© शैलेश त्रिपाठी
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