जब अकेला होता हूँ तो खो जाता हूँ बीते कल में खोए उस सख़्श की तलाश में....
इस दुनिया से परे ,इक कल्पनाओ की दुनिया में..
जहाँ सिर्फ मैं और कुछ विचार मंथन करते हैं गहरे बीते हुए कल के समुद्र का..
फिर उसकी सुनहरी यादों की मदिरा निकलती है औऱ मैं मदिरापान कर लेता हूं उस साकी के हाथों से,
जो स्वयं आती है उसी मंथन से बाहर..
नशे में धुत्त न जाने कितनी दूर उसका सहारा लेके चलता हूँ..कदम लड़खड़ाते हैं, न जाने कितनी बार बहकता हूँ..
साथ चलते चलते एक खूबसूरत मोड़ पे वो ग़ायब हो जाती है..
जहाँ से सिर्फ़ उसकी आवाज़ आती है मुझे पुकारने की..
फिर भटकते भटकते आँख खुलती है घर की कुर्सी पे
- शैलेष
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