Skip to main content

जीवन का सत्य


शिशु का कोमल तन,मनभावन- मुस्कान
मृतक में भी प्राण फूंक दे।
बालक रूप में लुभाती अठखेलियां, शरारतें और तोतली बातें।
अब शिक्षा ग्रहण करने का समय आता है।
धीरे-धीरे वो बालक किशोरावस्था की चौखट पर कदम रखता है।
उसके अन्दर नादानी, भावना कि मैं ही सही हूँ बड़ी प्रबल होती है।
दूसरे शरीर के प्रति आसक्ति बढ़ती है,
जिसे वो प्रेम मानकर जीवन की पहली..
सबसे बड़ी भूल करता है। 
फिर युवावस्था में प्रवेश उसके जीवन का उच्चतम काल होता है।
दो ही विकल्प रह जाते हैं, 
या तो अभी मानसिक-शारीरिक श्रम द्वारा भविष्य को उज्जवल बना ले..
या फिर मोह-माया में उलझा रहे और कर्महीनता से भविष्य अंधकार में ढकेल दे। 
इसी समय मनुष्य में परिपक्वता आती है, 
प्रेम और मोह में अंतर स्पष्ट होता है। 
इसी अवस्था में वह अपने रूप-सौंदर्य के अहंकार में मदमस्त हुआ फिरता है..
भूल जाता है कि शारीरिक सौंदर्य नहीं बल्कि आत्मा को श्रेष्ठ बनाना लक्ष्य होना चाहिये । 
फिर वो गृहस्थाश्रम में जीवन को आगे बढ़ाता है, 
'अर्थ और 'काम' के पीछे भागता है। 
वृद्धावस्था में वही शारीरिक सौंदर्य जिसका उसे अभिमान होता है, 
दिन-प्रतिदिन सूर्य के समान अस्त होता चला जाता है। 
अंत में आंतरिक सौंदर्य ही मनुष्य की पहचान बनता है। 
अपनी सभी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करके, वह देह त्याग देता है, 
और उसके आत्मिक सौंदर्य के माध्यम से संसार उसे याद रखता है। 
वह अमर- आत्मा प्रभु के चरणों में विलीन हो जाती है, 
और वो जो खाली हाथ आया था, 
अपने कर्मों का परिणाम लिये धरती से विदा हो जाता है।

© कृति तिवारी

Comments

Popular posts from this blog

"फेंक जहां तक भाला जाए" - वाहिद अली वाहिद द्वारा रचित

कब तक बोझ संभाला जाए द्वंद्व कहां तक पाला जाए दूध छीन बच्चों के मुख से  क्यों नागों को पाला जाए दोनों ओर लिखा हो भारत  सिक्का वही उछाला जाए तू भी है राणा का वंशज  फेंक जहां तक भाला जाए  इस बिगड़ैल पड़ोसी को तो  फिर शीशे में ढाला जाए  तेरे मेरे दिल पर ताला  राम करें ये ताला जाए  वाहिद के घर दीप जले तो  मंदिर तलक उजाला जाए कब तक बोझ संभाला जाए युद्ध कहां तक टाला जाए  तू भी है राणा का वंशज  फेंक जहां तक भाला जाए - वाहिद अली वाहिद

क्या है

लिखते हैं थोड़ा पर शायर नहीं हम बार बार बेमतलब का ये अर्ज़ क्या है हारे हैं खुद से या हराए हुए हम इन सारी बातों में अब फर्क क्या है जिम्मेदार सारी अपनी उन गलती के हैं हम अब ये भी पता है अपने फ़र्ज़ क्या हैं बीमार बन के बैठे अस्पतालों में हैं हम अब जा कर जाना कि ये मर्ज क्या है बर्बाद तो अब हैं खयालों में भी हम जुआ खेलने में तब हर्ज क्या है © सत्यम

सहेली

मनमोहक रूप है तेरा,  चाँदनी सी शीतल है तू । मेरा हाथ थामे चल हमसफर, बस इतनी सी ख्वाहिश है तू।  तू स्वप्न सी है कभी , कभी हकीकत है तू। कुछ अजनबियों सी, तो कुछ अपनी सी है तू। थोड़ा गुस्सैल चिड़चिड़ी सी, तो कभी मनमोहिनी सी खूबसूरत है तू। चाँद सा रूप,कोकिला सी मधुर है तू। पायल की झंकार सी तेरी बोली। सरिता सी मृदुल है तू, कभी परियों की कहानियों की नायिका, तो कभी यादों की पतंग की डोर है तू। मनमोहक सा रूप है तेरा, चाँदनी सी शीतल है तू।      © प्रीति