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Showing posts from July, 2020

इमैनुअल राजकुमार जूनियर

बारहवीं के बाद से न जाने कितनी फिल्में देखी होंगी मैंने।फिर भी तीन चार सौ तो देख ही लिया हूँ।मुझे नही याद कि मैं आख़िरी बार कब भावुक हुआ था।दिल बेचारा ऐसी फ़िल्म है जो शुरुआत से ही इतना स्मूथली अपनी कहानी का जाल बुनते हुए आपको बांध लेती है कि आप "इमैनुएल राजकुमार जूनियर (मैनी)" से पट्ट से कनेक्ट हो जाते हैं। फिर जेपी की वो फ़िल्म की कहानी बनाना या फिर "किज्जी बासु" पे "मैनी" का फिदा हो जाना।फिर बीच बीच मे कई दिल छू लेने वाले डायलॉग्स जैसे "एक था राजा एक थी रानी दोनों मर गए ख़त्म कहानी,तुम सेफ नहीं लगते,तुम सीरियल किलर टाइप लगते हो. मैं सीरियल किलर तुम... मैं कोई रियलिटी शो की कंटेस्टेंट सी लगती हूँ जो इस हफ्ते एलिमिनेट होने वाली है पर कोई मुझे वोट देके एक और हफ्ते के लिए जिंदा रख रहा है.,और मैं तुम्हारी गर्लफ्रेंड नहीं हूं ,अभी नही या कभी नही ..कभी नहीं .चल झूठी..अंकल मैं बहुत बड़े बड़े सपने देखता हूँ लेकिन उन्हें कभी पूरा करने का मन नही करता लेकिन किज्जी का सपना तो सिर्फ पेरिस जाने का है और उसका सपना पूरा करने का बहुत मन करता है..,मैनी से मैं जब मिला था तो...

एक छोटा प्रयास

चला हूं मंजिल पाने की जद में नजर  तले  उतरने की जंग में पूरी तैयारी है दोस्तों! कहता कौन है कि डूब रहा है सूरज  चांद की भी तो अपनी जिम्मेदारी है दोस्तों! मिल जा रहा है रहबर सरेआम राहों में तिलिस्म तोड़ने की अपनी भी मनसबदारी है दोस्तो! दुश्मनों की मेहरबानी से बात बिगड़ी नहीं मेरी दोस्तों की भी अपनी कलाकारी है दोस्तों! दावते-रह में मिल रहे हैं सैकड़ो ख्वाब पर्दे तले  कहो किस तरह हिम्मत मैंने हारी है दोस्तों! गर होता है बर्बादी के बाद आबादी का आलम  तो फऱकत मेरी भी जीतने की बारी है दोस्तों! है अरमां की कुछ कर मिट सकूं जमाने के लिए पर जमाने की शर्त भी बड़ी भारी है दोस्तों!                                                                        © वागीश

वेश्या होना भी कहां आसान है!

कभी गाली कभी कलुषित तो कभी जूठन जैसे नामों से पुकारी जाती हूँ, मै तुम्हारे ही सभ्य समाज में एक वेश्या बन जाती हूँ। वेश्या होना भी कहाँ आसान है! खुद का पेट भरने को, खुद को ही बेच आना! बिन सिंदूर श्रृंगार कर हर रात दुल्हन बन जाना और  बेजान बन जानवरों से नुचवाना, ये भी कहाँ आसान है! कितनी ही बार खुद की कोख उजाड़ कर फिर से माँ बन जाना और तुम्हारी ही संतान को पिता का नाम ना दिला पाना, ये भी कहाँ आसान है! किन्तु अगर मै वेश्या हूँ तो तुम कौन हो ? तुम उसी वेश्या के भाई, पिता या बेटे होगे। तुम वही हो जो स्त्री को देवी बनाते हो, उन्हें कपड़ों में ढकना चाहते हो और फिर निर्लज्ज बन 'मुझे' बेआबरू कर  जाते हो। तुम्हारे लिए मै गंदगी हूँ फिर भी तुम लिपटने आ जाते हो। अपने घर को मंदिर और हमारी गलियां बदनाम बनाते हो। चलो वेश्या तो 'मै' थी पर मेरी संतान को क्यों पाप बताते हो , उस मासूम का जीवन शुरू होते ही तुम उसकी उम्र गिनने लग जाते हो, शायद तुम्हे डर है कि कहीं वो तुम्हारी बेटी ना बन जाए  इसलिए पंद्रह की होते ही 'तुम' उसे भी वेश्या बनाते हो। और वो पवित्रा नारी , जो मुझे क...

चालीस साल

चालीस साल आज तुमसे मिले चालीस साल हो गए अब तो तुम्हारे सारे बाल सफ़ेद हो गए, पर तुम अब भी वैसी हो, जैसे तुम तब थी और मेरे साथ पढ़ती थी, एकदम भोली,सीधी-साधी गुपचुप सी अब भी रहती हो, हर बात को अब भी धीरे-धीरे कहती हो, अब तो अपने बच्चों को तुम गणित पढ़ाती हो, उनके न समझने पे बिल्कुल वैसे ही समझाती हो, सवालों को अब भी हल करने की जगह,उन्हें बनाती हो, कुछ बात कही,कुछ बात सुनी,बस सुन के हौले से मुस्काती हो, सुनो,तुम बिल्कुल नहीं बदली, अब भी तुम फिर से उसी बैच के साथ बीएससी करना चाहती हो, क्या अब भी "बहुत याद आ रही है या मूड ऑफ है का बहाना बनाती हो.. तुम बिल्कुल नही बदली,वैसी ही हो जैसे तुम मेरे साथ पढ़ती थी.. © शैलेश

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ठहरो जरा

ठहरो जरा शाम तक, साँझ बन के विदा हो जाना अभी दोस्त बनो,फ़िर थोड़ा परख के फ़िदा हो जाना.  वक्त ले लो जितना चाहो, वक्त........ले लो जितना चाहो, बस थोड़ा सा जल्दी करना,कही किसी और कि डोली में विदा न हो जाना ठहरो ज़रा शाम तक,साँझ बन के विदा हो जाना.. कुछ थोड़ी बातें भी जान लो तुम अभी मेरे बारे में, मेरी सखियाँ हैं ढ़ेर सारी और दोस्त भी हज़ार हैं, और ये भी जान लो मुझे दुनिया मे हर जीव से प्यार है, कभी जो सखियों से बात करूं तो तुम रूठ मत जाना, ठहरो जरा शाम तक,साँझ बन के विदा हो जाना.. मुझे किसी रूठे को मनाना नहीं आता, ऐसे ही बिन बात के मोहब्बत जताना नही आता, मैं हर रोज़ तुम्हारा हाल पूछ सकता हूँ, तुम्हारी प्रॉब्लम सुन के उसका हल सुझा सकता हूँ, जब भी हो तुम्हें मेरी जरूरत एक बार हौले से बुलाना, ठहरो ज़रा शाम तक,साँझ बन के विदा हो जाना.. बेवज़ह बातें करता हूँ,सब कहते हैं मैं हरदम बोलता हूँ, ज्यादा पढ़ता नहीं,बस दिन भर मोबाइल चलाता हूँ, जब गुस्सा होता हूँ,या प्यार जताता हूँ तो उसके लिए स्टेटस लगाता हूँ.. तुम इन सब बातों से नाराज़ न होना,बस एक बार बता देना.. ठहरो ज़रा शाम तक,साँझ बन के विदा हो जाना। ठहरो ...

वो कहती है तो मान लेता हूं

नये हर आगाज़ को अंजाम मान लेता हूं अपने कमरे की छत को आसमान मान लेता हूं अपनी थकावट को मैं आराम मान लेता हूं कण कण को मैं भगवान मान लेता हूं किसी और की कही बातों को मैं मानूं या न मानूं लेकिन वो कहती है तो मान लेता हूं उसके आंसू को अपना अपमान मान लेता हूं खुद के चेहरे की हंसी को बेईमान मान लेता हूं उगते सूरज को मैं ढलती शाम मान लेता हूं सादे पानी को मदिरा का जाम मान लेता हूं किसी और की कही बातों को मैं मानूं या न मानूं लेकिन वो कहती है तो मान लेता हूं हर झूठ को उसके मैं सच मान लेता हूं हर जीत को अपनी मैं हार मान लेता हूँ उसके वादों को चाहत का ज्ञान मान लेता हूं ख्वाहिश को उसकी फरमान मान लेता हूं किसी और की कही बातें की मैं मानूं या न मानूँ  लेकिन वो कहती है तो मान लेता हूँ © रक्तफूल

Is increasing encounters are questioning the efficiency of our Judicial System?

The Gradual increase in encounters creates a situation in the society where the law enforcers become a law breaker . Somehow the public's faith in our judicial system is also decreasing . Acceptance of the  concept of ' Justice Delayed is Justice Denied ' is increasing. Majority of public is justifying the encounters, due to the lack of faith in our judiciary .  Either it would be Hyderabad rape case or it be the Kanpur's incident in which the main culprit has been encountered today.  For example if we particularly talk  about the encounter of Vikas Dubey , then somewhere it is  challenging the judicial system of nation. Where a criminal is arrested ( actually surrendered to the local guards in Ujjain's Mahakal temple )  &  encountered by the UP Police in Kanpur.  Although it happened due  to political pressure by using the public sentiments arose after the policemen were martyred. There were huge chances that it might break a big politic...

सांझ हो गई

साँझ हो गयी ढलती शाम भी गुजर रही है दबे पांव, कोई थका माँदा लौट रहा होगा घरौंदे को। भूखा-प्यासा ,दिन भर धूप में तपा हुआ, क़दमों की रफ़्तार मंद हो रही होगी, मन मचल रहा होगा,घर जल्दी पहुंचने को, साँझ हो गयी! कोई थका मांदा लौट रहा होगा घरौंदे को। घर पहुंचेगा क्या क्या कहेगा, बीवी को सब्जी का थैला देगा, बच्चों को जेब में रखी टॉफी देगा, थक हार के चारपाई पे औंधे मुँह पड़ जायेगा, कोई पूछा तो बहुत थक गया है वो ऐसा कह देगा, सब कुछ  मन मे चल रहा होगा, साँझ हो गयी! कोई मजबूर लौट रहा होगा घरौंदे को। किससे थका इस व्यवस्था से लड़ते लड़ते, या फिर रोज वही मजबूरी सहते सहते। आज भी उसको पूरी मजदूरी नही मिली, रोज की तरह उसकी साँझ हो चली, बीवी बच्चे सब राह देख रहे होंगे, घर का चूल्हा भी उसके इंतेज़ार में होगा, गाय खड़ी पुकार रही होगी हौदे पे, साँझ हो गयी! कोई थका हारा लौट रहा होगा अपने घरौंदे को।       ©शैलेश

प्रश्न चिन्ह लगते रहेंगे

अगर आपने समाज में अपने आप को साबित नहीं किया, अगर आप ने कुछ बड़ा हासिल नहीं किया, अगर आप अपनी योग्यता दिखा नहीं पाए तो जब जब आपकी कहानी लिखी जाएगी, एक प्रश्न चिन्ह आपकी कहानी पर सवाल खड़े करेगा, और उसको कभी पूरा नहीं होने देगा। कोई ख्वाहिश हो, कोई सिफ़ारिश हो, कोई सलाह हो, या तरकीब हो, परेशानी हो, या उलझन हो प्रश्न चिन्ह लगते रहेंगे चाहे आप सही गलत का भेद बताएं या किसी को कोई नया मार्ग दिखाएं प्रश्न चिन्ह लगते रहेंगे। कोई शरम हो, कोई दोष हो, कोई पुण्य हो, कोई पाप हो, कोई सच हो, कोई झूठ हो, प्रश्न चिन्ह लगते रहेंगे आपकी असफलता को तो प्रत्याशित मान कर लोग उपहास करेंगे लेकिन आपकी सफलता पर प्रश्न चिन्ह लगते रहेंगे यह प्रश्न चिन्ह आपको हमेशा अपनी आकृति के समान घुमावदार भूल भुलैया में भटकाता रहेगा, और आपके अंतर्मन में एक प्रश्न चिन्ह लगाता रहेगा कि कोई अंत है इस प्रश्न चिन्ह का? लेकिन जिस दिन आपने अपनी शक्ति का प्रयोग कर के उस प्रश्न चिन्ह की घुमावदार आकृति को मरोड़कर सीधा कर दिया, साबित कर दिया इस समाज में खुद को, अपनी योग्यता का ढिंढोरा पीट दिया, वही प्रश्न चिन्ह अब आपकी कहानी में पूर्ण वि...

सहेली

मनमोहक रूप है तेरा,  चाँदनी सी शीतल है तू । मेरा हाथ थामे चल हमसफर, बस इतनी सी ख्वाहिश है तू।  तू स्वप्न सी है कभी , कभी हकीकत है तू। कुछ अजनबियों सी, तो कुछ अपनी सी है तू। थोड़ा गुस्सैल चिड़चिड़ी सी, तो कभी मनमोहिनी सी खूबसूरत है तू। चाँद सा रूप,कोकिला सी मधुर है तू। पायल की झंकार सी तेरी बोली। सरिता सी मृदुल है तू, कभी परियों की कहानियों की नायिका, तो कभी यादों की पतंग की डोर है तू। मनमोहक सा रूप है तेरा, चाँदनी सी शीतल है तू।      © प्रीति 

मानता हूँ मैं बहुत कुछ हूँ तुम्हारे लिए।

मानता हूँ,मैं बहुत कुछ हूँ तुम्हारे लिए। सुकून हूँ तुम्हारे मन की शांति हूँ, जिंदगी भी हूँ और प्रार्थना भी, अरदास,इबादत,अज़ान भी मैं ही हूँ तुम्हारे लिए, गीत हूँ, मनमीत हूँ,  तुम्हारे मन को सुकून देने वाला संगीत हूँ। मानता हूँ  तुम्हारे हृदय की धड़कन का शोर हूँ मै, वो सब कुछ हूँ मैं तुम्हारे लिए, पर क्या मेरी बात सुनना पसंद करोगी? अगर मैं कहूँ मुझे कोई और पसन्द है, क्या तब भी मैं ऐसा ही रहूंगा तुम्हारे लिए, तुम्हारे जज़्बात गवाही देंगे,  मुझे इसी तरह बेपनाह चाहने के लिए, तुम्हारी अंतरात्मा तड़प नही उठेगी!! मानता हूं किसी को बेपनाह प्यार करना सही है, बदले में प्यार की उम्मीद बेईमानी भी नही है। मानता हूं तुम्हारी पसन्द है वो, उसकी पसन्द भी तो मायने रखती है, अधिकार है उसे अपनी बात कहने की, अपने जज़्बात कहने की। हर चाहत पूरी हो ऐसा जरूरी तो नहीं, जिसे चाहो वो मिल जाये जरूरी तो नहीं।                                             -रक्तबीज

आज उसकी गली से गुजरते हुए

आज उसकी गली से गुजरते हुए उस गली के नुक्कड़ से मुड़ते हुए उन रास्तों पर अकेला ही चल रहा होता हूँ लेकिन ऐसा लगता है वो साथ चल रही है हर वक़्त इस भ्रम में डूबा चल रहा होता हूँ कि शायद उसकी आवाज़ मुझे बुला रही है अपनी रफ्तार से थोड़ा तेज़ चल रहा होता हूँ जैसे वो बहुत देर से मेरा इंतजार कर रही है और कभी कभी बहुत धीमे चल रहा होता हूँ जब लगता है कि वो मुझे ही याद कर रही है लेकिन दिल मे कोई ख्वाब नही संजोया है आज उसकी गली से गुजरते हुए बस हमेशा की तरह उसकी याद आ गयी आज उसकी गली से गुजरते हुए © रक्तफूल

बस नहीं है

हजारों चेहरे हैं नकाबपोश यहां की भीड़ में साथ छोड़े या पकड़े इसी पर बस नहीं है। कदम लड़खड़ा रहे हैं हर इक मोड़ पर पैरों पर भी अब बेशक मेरा बस नहीं है। सब रास्ते धुंधली मंजिल दिखा रहे हैं किस रास्ते को पकड़ू इसी पर बस नहीं है। हजारों सवाल खुद से पूछ रहा है ये दिल दिमाग निरुत्तर है यहां कोई बहस नहीं है। बहस होती तो भी कुछ होता क्या ? दिमाग सड़क है, ये संसद तो नहीं है। © शशांक

जानती हो

जानती हो.. कभी कभी सोचता हूँ कि तुमसे हर वो बात पूछूँ,कुछ साल पहले जैसा बेवकूफ हो जाऊं,तुमको परेशान करूँ और खुद भी परेशान हो जाऊं.. तुम ठहरी मृगनयनी सी ,हम चमगादड़ जैसे हैं तुम हो टॉपर अपने जिले की,हम स्टेटस पे ही अटके हैं, लफ्ज़ भी कठिन हो रहे हैं,और जज़्बात हमारे गणित हो रहे, अब वक्त इजाजत नही देता और हालात भी कोरोना के हैं। ©रक्तबीज

मन नहीं है

आंखों में उसके वो काजल वही है मगर उसकी पलकें तो अब नम नहीं है जुल्फें में उसकी अदाएं वही हैं मगर उस अदा में वो सरगम नहीं है होठों पे उसके वो रंगत वही है मगर उन लबों पर अब मरहम नहीं है नज़रों में उसके इशारे वही हैं मगर उन निगाहों में अब गम नहीं हैं हम तो हैं बागी अब खुश तो वही है मगर उस तमाशे में अब हम नहीं हैं दिल में हो कुछ भी पर दूरी वही है छोड़ो ना यार अब मन नहीं है © रक्तफूल

अंतर्द्वंद्व

अंतर्मन में प्रतिस्पर्धा चल रही है जिसमें मेरी लड़ाई किससे है? पता नहीं, लेकिन एक युद्ध छिड़ चुका है वहां जिसमें सैकड़ों की संख्या में प्रतिद्वंदी पड़े हैं पीछे मेरे। मैं बेसुध केवल भाग रहा हूं। वक्त की रफ्तार धीमी पड़ जाए कदमों को नहीं रोक सकता मैं। यहां मेरे पास भागने के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं है। जहां मैं रुका पता है मुझे, वो कुचलकर आगे बढ़ जाएंगे। वक़्त भी नहीं याद रखेगा मुझे लोगों से क्या उम्मीद रखूं। इसलिए मैं भाग रहा हूं! अंतर्मन में प्रतिस्पर्धा चल रही है जिसमें मेरी लड़ाई किससे है? © शशांक