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बस नहीं है


हजारों चेहरे हैं नकाबपोश यहां की भीड़ में
साथ छोड़े या पकड़े इसी पर बस नहीं है।
कदम लड़खड़ा रहे हैं हर इक मोड़ पर
पैरों पर भी अब बेशक मेरा बस नहीं है।
सब रास्ते धुंधली मंजिल दिखा रहे हैं
किस रास्ते को पकड़ू इसी पर बस नहीं है।
हजारों सवाल खुद से पूछ रहा है ये दिल
दिमाग निरुत्तर है यहां कोई बहस नहीं है।
बहस होती तो भी कुछ होता क्या ?
दिमाग सड़क है, ये संसद तो नहीं है।

© शशांक

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