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वेश्या होना भी कहां आसान है!

कभी गाली कभी कलुषित तो कभी जूठन
जैसे नामों से पुकारी जाती हूँ,
मै तुम्हारे ही सभ्य समाज में एक वेश्या बन जाती हूँ।
वेश्या होना भी कहाँ आसान है!
खुद का पेट भरने को, खुद को ही बेच आना!
बिन सिंदूर श्रृंगार कर हर रात दुल्हन बन जाना और
 बेजान बन जानवरों से नुचवाना, ये भी कहाँ आसान है!

कितनी ही बार खुद की कोख उजाड़ कर फिर से माँ बन जाना और तुम्हारी ही संतान को पिता का नाम ना दिला पाना, ये भी कहाँ आसान है!
किन्तु अगर मै वेश्या हूँ तो तुम कौन हो ?
तुम उसी वेश्या के भाई, पिता या बेटे होगे।

तुम वही हो जो स्त्री को देवी बनाते हो, उन्हें कपड़ों में ढकना चाहते हो और फिर निर्लज्ज बन 'मुझे' बेआबरू कर जाते हो।
तुम्हारे लिए मै गंदगी हूँ फिर भी तुम लिपटने आ जाते हो।
अपने घर को मंदिर और हमारी गलियां बदनाम बनाते हो।

चलो वेश्या तो 'मै' थी पर मेरी संतान को क्यों पाप बताते हो ,
उस मासूम का जीवन शुरू होते ही तुम उसकी उम्र गिनने लग जाते हो,
शायद तुम्हे डर है कि कहीं वो तुम्हारी बेटी ना बन जाए 
इसलिए पंद्रह की होते ही 'तुम' उसे भी वेश्या बनाते हो।

और वो पवित्रा नारी , जो मुझे कुलटा कह कर मुह फेर जाती है।
वो ये ना भूले, की उसी की कोख मुझे कुलटा बनाती है,
वो ये न भूले, की वो उस धूर्त की पत्नी है जो अपनी वासना के लिए हर रात ब्याह रचाता है और उसके विश्वास को बंद कमरे में बेच आता है
मैं तो तन की बोली लगा कर भी मन की पवित्रता बचा ले जाती हूँ,
पर पूछो उससे जो मर्यादा को ताक पे रख कर मन बेचने चला आता है।
तुम्हारा समाज बेदाग रहे इसलिए दागदार हो रही हूँ 'मैं'
घर-घर में कोई वेश्या न बने इसलिए वेश्या हो रही हूँ 'मै'।

पर तुम कहाँ समझ पाओगे मेरे ये बलिदान को
तुम ही ने तो छीन लिया मेरे नाम और पहचान को।
कोठे वाली, नाचने वाली, बार गर्ल के नाम से नवाज़ा है 'तुमने', 
पर ये ना भूलो कि इस कुंए में तुम्ही ने ढकेला था मुझे।

'साया भी मेरा अछूत है' कह कर 
मेरे अंग को छूने के जो तुम हकदार हो गए हो
तो ये न समझना कि तुम मेरे भगवान हो गए हो।
घर-घर में बेटियाँ होती है ज़रा संभाल कर रखना उन्हें,
कहीं तुम्हारे ही समाज से कोई 'शरीफ' फेंक ना जाए उन्हें हमारे इस दरबार में।

बहुत क्रोध भरा है मुझमे पर फिर भी चुप हो जाती हूँ ये सोच कर
कि चाहे नफरत ही सही मगर कुछ तो दिया है इस समाज ने
अगर मौत से बदत्तर ज़िन्दगी मिली तो जीने का ज़रिया भी दिया है,
शरीर बेच कर ही सही मगर दो रोटी का इंतेज़ाम कर दिया है।

इच्छाएँ तो बची नही बस यही आस लिए जी रही हूँ कि
काश मुझे भी कभी कोई मेरे नाम से पुकार लेता।
थोड़ी देर के लिए ही सही कोई वेश्या से इंसान बना देता!
                                                © अपूर्वा श्रीवास्तव
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